कैसा मंजर
कैसा मंजर
यह मंजर आज कैसा छाया है
उजाले में अंधेरा नजर आया है
जिसे मान रहे थे,हम अपना,
उससे आंखों में अक्षु आया है
दोस्त बनकर वो दगा दे गया
भरे सावन में ही सूखा दे गया
कैसा आईना शहर में आया है
देखा चेहरा उल्टा नजर आया है
रूप बाहर से भले इंसानो का,
शीशे में अक्स जानवर आया है
यह मंजर आज कैसा छाया है
खुली आँखों से अंधेरा आया है
ठोकरे खाकर ही ज्ञान आया है
काजू,बादाम तो सिर्फ माया है
अजीब राह पे चल पड़ा,साखी
जहां न हो स्वार्थ की कोई झांकी
ख़ुद की दोस्ती से गम घटाया है
बाकी हरकोई मित्र स्वार्थजाया है!
