मन नहीं होता
मन नहीं होता
अब कविता लिखने का मन नहीं होता
नहीं भाता अब सच का स्वाद
भले, झूठ का, बर्तन नहीं होता
अरसा हो गया क़लम को पकडे शायद
पर क्या करूँ लफ़्ज़ों में वो
अपनापन नहीं होता,
अब कविता लिखने का मन नहीं होता
रंजिश नहीं है अल्फ़ाज़ों से
दिल भरा है, अब भी जज़्बातो से
पर कुछ कहने का, अब मन नहीं होता
क्या कुछ नहीं है इस फ़साने में
कभी दिल करता है आग लगादूँ ज़माने में
पर हाथों में इतना बल नहीं होता.
अब कविता लिखने का मन नहीं होता
अब ये न सोचना की गुमां में रहती हूँ
हैं मेरे भी कुछ मिसरे यहां,
पर थोड़ा तन्हां सी रहती हूँ,
सुना हैं खालीपन में बेगानापन नहीं होता
अब कविता लिखने का मन नहीं होता
एक दिल कहता है, कि
करले दोस्ती क़लम के खंजर से,
मरहम से भी अब ज़ख्म है जलता
मेरी किताबें न जाने कहाँ चली गईं
जो कहतीं थी, तुझसे मन नहीं भरता
अब कविता लिखने का मन नहीं होता
नहीं भाता अब, सादा चेहरा
भले, मुखौटे का कल नहीं होता!
