वो सोचती
वो सोचती
जीवन दर्पण से अड़ी ,
खड़ी सोचती हर बात की धार ।
वो तोलती रही,
कंगन, पायल और मंगलसूत्र का भार ।
सिंदूर की लंबी रेखा,
कैसे किसी की जीवन- रेखा ।
वो सोचती रही ,
अर्धांगिनी और सात फेरों का सार ।
कई बेड़ियों को,
सहज सिंगार समझ ,
पीड़ा को निज भाग्य समझ ,
जीती पीड़ा मय संसार ।
मुक्त - उन्मुक्त का अंतर ,
उसे भ्रमित करता ।
वो रचती जीवन - रचना,
बिन जीवन आधार ।
वो वागदत्ता क्यों मौन ?
मूक, बधिर जैसी , प्रश्न दर्पण से करें ।
वो रही प्रतीक्षा में सदियों,
प्रश्न अनुत्तरित रहा हर बार ।