मजदूर
मजदूर
सूनी आंखें ,खाली पेट,
रहने को मजबूर ।
टूटी चप्पल हाथो मे लेकर ,
नंगे पैर चला मजदूर ।
अपनी मेहनत से गढ़ता ,
जाने कितने महल दोमहले,
पर खुद का एक ठिकाना ,
नहीं बना पाता मजदूर ।
कुछ पैसे और बचा ले,
इसीलिए अक्सर..
भूखा सोता है मजदूर ।
कई आंखें उसकी बाट देखती,
इसीलिए अक्सर ...
कम सोता मजदूर ।
छोड़कर अपने घर और गांव,
बेगानों में जा बसता है ।
चंद सिक्कों के बदले..
परदेसी बनता मजदूर ।
हथेलियों में पड़ी गाठें,
और पैरों की फटी बिवाईयां ।
पूछती है और कब तक ?
बस ! कुछ और दूर कहता मजदूर ।
जाने कब तक पहुंचेगा ,
अपनी मां के आंगन ।
यही सोच - सोच कर
अक्सर रोता है मजदूर ।