बेपरवाह चली
बेपरवाह चली
बेफिक्र अपना हाथ उसके हाथ में थमा चली
दुनिया से परे, सब भूला, उसके संग चली
एक घरौंदा
प्यार और विश्वास से बुन, बेपरवाह चली।
सपनों में भी
कभी हाथ छूटने का भ्रम तक न हुआ
और अचानक सब कुछ छूट गया।
अब संभाले न संभलता,
यह दर्द
कुछ गहरा ही असर कर गया।
दिल अब धड़कने से मना करता
रात और दिन की सुध खो बैठा।
जीवन एक शून्य-सा बन गया
असुवन धारा गंगा-सी बहती रहती
आत्मा इस पिंजर में छटपटाती रहती।
कुछ सूझता नहीं
हलक से कुछ उतरता नहीं।
उस के छल-कपट में ऐसा उलझा
कि सांस की डोर टूटने का डर
पर एक किनारा
जिगर के टुकड़ों से बंधा।
जिन्हें उस पार, ले जाना
जहाँ इंसान बसते
जो प्रेम के धागों से लिपटे।
जहाँ शबरी के
झूठे बेर सहप्रेम खाए जाते।
जहाँ कृष्ण सुदामा के
चरण प्रेम में पखारते।
जहाँ आज भी कृष्ण
विदूर की साग-रोटी खाते।
बस वहाँ ही संसार बसाना
जहाँ इंसान ही इंसान बसते।