किसानों की आत्महत्या
किसानों की आत्महत्या
वो खेत अनाथ है हो गए,
खलिहान एकांत में खो गए,
बंधते न बँधा, सब्रो का पुल,
इक भूमिपुत्र तब गया झूल,
फिर एक काग ने अपना घर,
कोयल के कारण छोड़ दिया,
एक और किसान के आत्मघात ने,
मेरा मन झकझोर दिया।
बहती हो चाहे, तप्त पवन,
या बरसे बदरी, होके मग्न,
वो जला जलाकर स्वेद - रक्त,
तन मन धन से करता है लगन,
फिर क्यूँ उसकी आहुति का न,
मूल्य उसे पुरजोर दिया,
एक और किसान के आत्मघात ने,
मेरा मन झकझोर दिया।
अन्नदाता कहलाता है वो,
सबकी भूख मिटाता है वो,
जो हल से भू-वक्ष को फाड़े,
क्यू दीन-हीन कहलाता है वो ?
इस चढ़ती महंगाई में क्यूँ,
उसका पेट निचोड़ दिया,
एक और किसान के आत्मघात ने
मेरा मन झकझोर दिया।
कहा गयी उनकी खुशहाली,
लोहरी और संक्रांत वाली,
फसलों से जो तरी रहती,
भंडार पड़ी वो आज क्यूँ खाली ?
बढ़ते साधन, सुविधाओं में क्यूँ,
उनके ही सुख को छोड़ दिया,
एक और किसान के आत्मघात ने,
मेरा मन झकझोर दिया।
सतत विकास की चाह यदि हो,
जनता की परवाह यदि हो,
तो इन दृश्यों को ढलना होगा,
इस अनर्थ को टलना होगा,
शास्त्री के नारे जय किसान से,
था हमने क्यू मुह मोड़ लिया ?
एक और किसान के आत्मघात ने,
मेरा मन झकझोर दिया।
