मन
मन
मेरा मन, और तेरा मन,
अति चंचल और सघन,
चित्रण करता है सदा,
पर चरित्र का कर मंथन।
है स्वचरित्र पहचान नहीं,
अपने मन पर कुछ ध्यान नहीं।
यह ऐसा और वह वैसा,
कैसी सोच ?, चरित्र कैसा ?
प्रयास निरंतर रहता य़ह,
कि दोष निकालूँ, किसका ? कैसा ?
मनःस्थिति य़ह विकसित कर,
बढ़ रहे मनुज, पतन पथ पर।
है एक मनुष्य, और रूप अनेक,
तेरे - मेरे मन में, एकैक,
हर एक के गुण- अवगुण से ही,
हमने भरे हैं मन के दरेख।
क्या ये सकता हो प्रबंध नहीं?,
कि बिन विभेद सम्बंध नहीं।
यदि ध्यान केंद्रित, अवगुण पर,
इच्छा विकास की किया न कर।
चाहे अपना हो या दूजा हो,
गुण से जाएगा और निखर।
दोषों को चुनना, छोड़ दे,
मानवता से, मन जोड़ ले।
इस इंद्रजाल से बाहर झाँक,
मन के मलाल को धोकर आँक,
घृणा को दृष्टि से निकाल,
पुरूषार्थी लोचन से ताक।
फिर दोषों की कम संख्या होगी,
अरीयों से भी न ईर्षा होगी।
आयेंगे मनुज, नज़र चहुँ ओर,
होगी संबंधो में फिर शोर,
खुलकर बाते होगीं दिल जोड़,
मन होगा मुक्त, बंधन को तोड़।
समाज उन्नति साजेगा,
सौभाग्य मनुष का जागेगा।
