कशमकश जिंदगी की
कशमकश जिंदगी की
ऐ! ज़िंदगी जब से हुए रूबरू तुझसे,
उलझे मिले रिश्ते कितने,
कभी लड़तीं घर में अपने दुलार के लिए,
घर में दुलार ज्यादा क्यों भाइयों को मिले?
हर बार क्यों देनी होती अग्नि परीक्षा मुझको ही,
कशमकश कैसी है यह ज़िंदगी,
गलती हो किसी और की,
पश्चाताप के व्रत और तप हिस्से में आते मेरे ही क्यों?
मुझे भाग्यलक्ष्मी बना परिवार की समृद्धि तोली जाती,
अगर ना उतरीं परिपाटी पर पूरी,
तो मैं ही भाग्यहीन क्यों हूं कहलाती?
ऐ! जिंदगी कशमकश है यह कैसी?
अस्तित्व के लिए अपने, मैं अपनों से ही हार जाती,
ज्ञान, बुद्धि -विवेक ,कार्य -कौशल में हो जाऊं निपुण इतनी भी,
मैं फिर भी क्यों दूसरे ही पायदान में आती.....
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कशमकश जिंदगी की काश !मैं समझ जाती..
बेचैन कभी न मैं अपने को फिर पाती...