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Deepika Raj Solanki

Tragedy

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Deepika Raj Solanki

Tragedy

धारा की करुण पुकार

धारा की करुण पुकार

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करुण पुकार धारा की सुन लो अब तो,

खोल अपने कान, 

खत्म हो रही है सहने की सीमाएं, 

हरितमा की फैली चादर हो रही है तार-तार,

पैबंद भी नहीं आ रहे हैं काम,


स्वार्थी दानव बन रहा है मानव, 

चीर हरण का देने ज़वाब,

धारा हो रही है तैयार, 

कहीं कांप उठता समंदर, 

कहीं पिघलता हिमखंड, 

कहीं देहेकता ज्वालामुखी,


कहीं धंसती धारा,

कहीं फटता बादलों का समूह, 

स्पष्ट कह रहा है अब नहीं सहन हो रहा है

तुम्हारा विध्वंसकारी प्रहार। 

हे! मानव एक बार अवलोकन कर लो, 

प्रताड़ना जो दी है तुमने मुझे बार-बार।


  काट तरू दल समतल कर धरातल,

छीन लिए तुमने कितने पशु - पक्षियों के घर,

विलुप्त होती प्रजातियां मांग रही जीवनदान, 

बिगाड़ दिया तुमने ईश्वरी संतुलन का सार,

विकसित मानव की दौड़ में आसमान में छेद कर, 


काले बादलों का बसा डाला साम्राज्य , 

दूषित कर अपनी सांसें भी,

युग महामानव बन ,

धारा को लूट रहे हो तुम, 

अपने ही हाथों सजे विस्फोटक सेज में सो रहे हो


नद -नालऔर ताल,

विषैला होता उनका अमृत आज, 

विचलित होती धारा का दिखने लगा है अब हाल, 

दिखाने लगी विनाशकारी परिणाम,

बढ़ते तप से

पिघलती हिमानी धर रुद्र अवतार, 


प्रलय ला रही ,मच रहा है हाहाकार, 

देख लो विकास का कैसा विध्वंसकारी नाच, 

अपने ही हाथों से लिख रहा इंसान अपना अंतिम फ़रमान,

तू !कृति ईश्वर की जो विद्वान,


 बन रही अपनी ही विनाश पटकथा का साध्य, 

पारितंत्र की इकाइयों का बिगाड़ दिया संतुलन,

बिगड़े संतुलन ने धारा की परतों दिया उखाड़,

दर्द से कांप उठती धारा,


 ध्वस्त कर देती तुम्हारी इमारत का संसार,

विलाप स्वर गूंज उठाता कितने बार, 

शांत जल में भी आ जाता ज़लज़ला भयानक कितने बार,

धराशाई पर्वत और फटते बादलों के सामूह,

चेतावनी बन होते खड़े, 


प्रकृति से छेड़खानी का हर बार देना पड़ता है तुझे हिसाब किताब,

अभी भी समझ नहीं आता तुझे अपने विनाश का पाठ, 

कहां खो गई सूरज की किरणों के संग खग- विहग की मधुर आवाज़,?

डूबते सूरज की शीतल शाम, आसमान पर गिले इंद्रधनुष के उभार,

तारों की छांव


विलुप्त होते प्रकृति के उपहार,

अब तो सुन लो धारा की करुण पुकार,

 छोड़ दो अपने सारे स्वार्थ 

बनकर प्रकृति के सारथी, 

वृक्ष बूटी से सजा दो 


फिर से धारा की हरितमा के

 चादर के तार,

धारा फिर खिल उठेगी और प्रकृति उपद्रव होंगे शांत।


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