जज़्बातों को कहना चाहूं
जज़्बातों को कहना चाहूं
जज़्बातों को कहना चाहूं,
शब्दकोश से ना शब्द चुन पाऊं
ऐसे यह जज़्बात मेरे इन्हें ना मैं कहानी- कविता में पिरो पाऊं,
दिल में उठे जज्बातोंऊ के तूफान,
आंखों में दिखे उनके निशान,
काश !कोई मिल जाएं जो इन निशान को पढ़ पाएं,
बैठे हैं अब हताश होकर हम,
कि...
ढूंढे किसी आंखों की भाषा को पढ़ने वाले को,
या
ख़ुद ही डूब कर शब्दों के सागर से शब्द मोती चुन -चुन कर ले आएं,
लिख दे अपनी मन की हर व्यथा,
रच दे एक नई गाथा,
मंथन में बैठे हैं हम,देखते हुए जज़्बातों का तमाशा,
तमासिन ना बन जाएं कहीं ढूंढने बैठे अपना कोई और विधाता?
सवालों के मकर जाल मे फंसता जाता मेरा जज़्बातों का काफ़िला,
सोच लिया है - समझ लिया है ख़ुद ही इस तूफ़ान से,
जूझ लेते हैं हम,
क्या भरोसा उन कंधों का जिस पर सर रख
सुने केवल उसके मन की हलचल,
भूल जाएंगे अपने आपको,
जो उसने पढ़ लिया आंखों में छाए तूफान के बादलों को?
या हम,हम रह पाएंगे?
आएंगे जो और नए तूफान उनसे कैसे संभाल पाएंगे?
संभाल कर खुद ही हम निकल जाते हैं इन जज़्बातों के तूफानों से,
कह देते हैं हर एक जज़्बातों को, शब्दों के ख़ज़ाने से,
कहेंगे लोग हमें दीवाना पागल ही,
जज़्बातों से हार कर,
जीत लेते हैं मन के तूफानों को,
पिरो देते हैं जज़्बातों को शब्दों के हार से
निकल जाते हैं हताशा के छाई गब्बर से
मचलते हुए जज़्बातों को मिला देते हैं उनके मुहाने से।

