मां
मां
सुंदरतम रूप नारीत्व का मां कहलाता,
शिशु धारण कर रोम -रोम अलौकिक उसका हो जाता,
गर्भावस्था के प्रत्येक चरण में शिशु स्नेह गुड़ा होता जाता,
प्रसव पीड़ा सहन कर जब शिशु आंचल में उसके मुस्काता,
माथा चूम मां का स्नेह आंखों से बह जाता।
नन्हे जीवन को ईश्वरी आशीष समझ,
अपने जीवन की परिधि में केंद्रित उसे कर ,
नए किरदार की संरचना में पदार्पण कर, ममतामई अनुभूति पाती
बन प्रथम गुरु सांसारिक परिवेश में हाथ पकड़ कर प्रवेश उसका करती,
संस्कारों की सिंचाई से मां ही उसे पौध से वटवृक्ष बनाती,
अपने सुखों की दे आहुति
शिशु के लिए हर वक्त उपस्थित हो जाती,
ऐसा बलिदानी मन,
मां ही पाती।
हर पीड़ा सह, शिशु को वयस्क बनाती,
शिक्षा के उपहार से भविष्य उसका संवार ,
शारीरिक -मानसिक- आर्थिक उन्नति की कर कामना
हर मंदिर- मस्जिद -शिवालय बांध धागे आती।
मां का आशीष ईश्वरी प्रसाद बन ,
संतान परम सुख पाते,
पर फिर क्यों कुछ?
वृद्धा अवस्था में मां को हम आश्रमों में पाते,
भौतिक लालसा में फंस,
मां को ही भूल जाते ,
अंत समय तक रोती आंखें पूछती प्रश्न यही
एक मां बन कहां हो गई भूल इतनी बड़ी?
संतान को सब सिखाते - सीखते,
अस्तित्व अपना भूल गई,
शायद इसीलिए आज मैं वृद्ध आश्रम की सीढ़ी पर आ खड़ी।
बददुआओं का जाल ना पड़े उसकी थाली पर,
अंत समय तक अपनी संतान की उन्नति और वृद्धि चाहती,
यह विशाल उदार हृदय सृष्टि में केवल मां ही पाती।
