जब उसका दीदार हुआ
जब उसका दीदार हुआ
अजब सी बोरियत थी,
उन दिनों यूँ रोज़ जीने में,
बसी थी सूनी और बेरंग यादें ,
मेरे सीने में।
मेरे नग़मो के आँगन में ,
रहती कशमकश छायी,
मेरे मन के दीवारों में,
तनी रहती थी तन्हाई।
अचानक तब उस अंधी कोठरी मे,
धूप थी सरकी,
कि जैसे अधमरे-भूखे पे,
दौलत भूख की बरसी।
मेरे सांसो की रागों में उठी,
एक झनझनाहट सी,
की जैसे भीष्म गर्मी में मिली,
इक कनकनाहट सी।
था पहला दिन ही कॉलेज का,
वो था बिल्कुल नया सा,
थी बेअसर हर बात,
मन था उलझनों मे खो गया सा।
उस हसीं चेहरे की आभा,
से लजाते, खीझ खाते,
सारे कामों का नयापन,
<p>इक इक कर बेकार हुआ।
मानों सब कुछ भूल गया मैं,
जब उसका दीदार हुआ।
कि जैसे मिल गयी सिद्धी हो
तपते इक तपस्वी को,
कि चंदा पूर्ण हो दीप्ता है जैसे,
पूर्णमासी को।
मिली नाकामियों के बाद,
हिम्मत की लहर जैसे।
कड़ी मेहनत के आगे,
उस सफ़लता के पहर जैसे।
नदी को प्यार से रोके,
वो बांधो के सबर जैसे,
सुबह और शाम को बाँधे,
मुक्कमल दोपहर जैसे।
थोड़ी शीतल, थोड़ी कोमल,
मीठी और खारी भी,
थोड़ी पागल,थोड़ी छोटी,
थी भोली और न्यारी भी।
उस दिन के बीते हर इक पल का,
तू ही तू बस सार हुआ।
मानों सब कुछ भूल गया मैं,
जब उसका दीदार हुआ।