कहीं न कहीं.. कभी न कभी
कहीं न कहीं.. कभी न कभी
इंद्रधनुषी सपनों की दुनिया से
सदैव वंचित रही मैं,
जो भी थे....जैसे भी थे
धुंधले से....फीके रंगों वाले
घुलते गये
एक-एक कर
समय की गर्त में,
मैंने
उनकी अनुपस्थिति में
तुम्हारे शब्दों को चुना !!
माना, खो ही जाएंगे हम-तुम किसी दिन -
जैसे....कुछ सवाल
उत्तर की प्रतीक्षा में अंत तक,
जैसे....एक तारा
ढूंढते हुए एक और तारे को
आकाश गंगा में,
जैसे....कुछ शब्द विचरते हैं
पूर्णता की तलाश में
कविता के पूर्ण-विराम तक
और रह ही जाती है
कविता
फिर भी अधूरी सी,
.. फिर भी
तलाश ही लेंगे
एक-दूसरे को
कहीं न कहीं.. कभी न कभी !!

