कोहरा और धूप...
कोहरा और धूप...
कुछ तो है..
सच में
जो नहीं कह पाता
ये कोहरा,
शायद..
द्रवीभूत है
रात की प्रतिध्वनियों से
अब तक !!
ठहर जाने की चाहत..
इच्छाएं आत्मसात कर लेने की
धूप को
अपने अंतस में,
और..
जी भर पिघलना
धूप के प्रथम स्पर्श से !!
..बस इतना ही तो चाहता है
ये कोहरा
इस धूप से !!
अरसे बाद मुस्करा रही थी
वो धूप
मंद-मंद ,
व्याकुल सी थी..
सोख लेना चाहती थी..
उदास कोहरे को
अस्तित्व में अपने,
अब,
धूप नम है
और ..
पिघलने लगा वो कोहरा
धीरे-धीरे !!
ये कोहरा
उदास सा कुछ,
चुप है..
थोड़ा गुमसुम ,
और ..
वो चमकती धूप
अनमनी सी ,
न बिखर पाई..
न संभल पाई !!
हैं व्याकुल दोनों ही
एक.. मन भर बिखरने को,
और एक..
जी भर..संभलने को !!
हां, जिद्दी हैं दोनों
एक ठहर जाना चाहता है ,
वो गुजर जाना चाहती है
महसूस करते हुए
बस, ऐसे ही !!
वो..करता था इंतजार
रात भर ..
सिर्फ और सिर्फ
उसकी एक मुस्कराहट का ,
और फिर..
गुजर जाता था
चुपचाप, धीरे-धीरे..
दोबारा.. फिर से आने को !!
न बातें खत्म होती थीं
न किस्से ,
रात भर की सुगबुगाहट..
मन के द्वंद्व..
उलझनें-सुलझने..
..सभी कुछ तो था
दोनों के संवाद में !!
इस तरह
कोहरा और धूप
अब ..
दोनों ही खुश थे
अपने-अपने किरदारों में !!