झुग्गी बस्ती
झुग्गी बस्ती
आइये ले चलते हैं आपको
अपने गाँव के बाहर।
एक ऐसी बस्ती में,
जो है अस्थायी सी।
कल ही तो प्लास्टिक के तंबू
टाट और पैबंद लगे कपड़ों से
तानकर घर तैयार हुआ है।
वही दिख जाएंगे नंग धड़ंग बच्चे,
जिनके उलझे बाल बतायेंगे
शायद कभी जल साबुन तेल
के हुए होंगे दर्शन।
फटे कपड़ों में इज्जत ढाँपती
हुई दिखेंगे औरतें।
जो टूटी फूटी बर्तन में
ईंट के चूल्हे पर अस्थायी रसोई में
पत्तों को झोंककर बना रही होंगी
कुछ खाने पीने को।
दिखेंगे कुछ युवा पुरुष,
जो दिखेंगे शरीर से हट्टे कट्ठे।
मगर उनके वस्त्र भी मलिन
होकर सफेद से काले हुए होंगे।
तंबाकू भरे मुँह से निकलती गालियां
या फिर कुछ के मुँह के किनारे से
पान की पीक टपकती होगी।
देखकर उन सबकी स्थिति
रोष दर्द दुख के आभास के साथ
सत्ता के लिए गालियाँ
और ईश्वर के प्रति नाराजगी
मन में उत्पन्न होगी।
मगर क्या सिर्फ दूसरों को
मानकर कसूरवार
सही होगा हमारे लिए या फिर उनके लिए।
क्यों नहीं प्रयासरत्त अच्छी जिंदगी को।
नशा को त्याग,
कठिन श्रम से बदल देते अपनी तकदीर।
क्यों नहीं दिखा देते श्रम
जाया नहीं जाता है।