नारी
नारी
कभी लाड़ लड़ाती कभी प्यार लड़ाती,
तेरे कोमल भावों ने जग को सींचा है।
परिवार की खुशी के खातिर तो तूने,
हर आंसू का कतरा कोरों में भींचा है।
फिर भी न जाने इस नृशंस समाज ने,
तेरा वीभत्स सा चित्र क्यों खींचा है ?
तेरे कदम से तो ओ पगली उग आते हैं,
मरू भूमि के बंजर में भी हरित उद्यान।
तेरे स्पर्श से पस्त हुए पुरुरवा सरीखे ,
हो जाते हैं द्रवित तब कठोर पाषाण।
जब नम्रता की प्रतिमूर्ति तुझ नारी की,
पड़ती है मंद - मंद वह मधुर मुस्कान।
तेरे रहमों करम की कायल यह दुनियां,
पगली क्या क्या में आज बखान करूं ?
तुझ पर हो रहे अत्याचारों का ओ देवी!
हां किस विधि से आज मैं निदान करूं।
खुद मैं गुनहगार सदियों से शायद तेरा,
इस बात का कैसे किससे प्रचार करूं ?
आज विश्व नारी दिवस के अवसर पर,
देख रहा हूं ,दुनियां तेरी जयकार करें।
यह झूठा है सब मान -सम्मान या फिर,
क्यों तू नित दिन छुप छुप के आहें भरें ?
बलिदान की अजीबोगरीब कहानी की,
तेरे यह मतलबी संसार क्यों कदर करें ?
जब जन्म लेना था मुझ को पगली तो,
तू नारी से ममता की मूर्ति बन मां बनी।
फिर भगनी, भावज और चाची - ताई,
पत्नी बनकर तू मेरा सकल जहां बनी।
नर के इस नृशंस जीवन में ओ पगली!
तेरी हर पल ही तो खलती यहां कमी।