पिता की सीख ही सच्ची थी
पिता की सीख ही सच्ची थी
____________________________________________
"कहलाना तो है मानव हमको,
पर पशु सा हमे सब करने दो।
पिता हो तुम तो फिर क्या हुआ?
हमे मर्जी से ही सब करने दो।"
"जन्म दिया और पाला - पोसा,
पढ़ाया - लिखाया, बड़ा किया।"
"कौन सा तीर मारा है तुमने?
फर्ज मां - बाप का अदा किया।"
"धन्य लला तुम जो जान खपा कर,
आज तुमसे ये शब्द उपहार मिला।
नेकी कर दरिया में डाल का उम्दा,
पितृ कर्म का उत्तम उपकार मिला।
निवाला अपने मुंह का छीन कर,
तेरे मुंह में, इसी लिए ही डाला था?
नूर गंवाया,तेरी मां ने तुझे जनाया,
क्या इसी लिए ही तुझे पाला था?"
सुन भारी-भरकम बोझिल शब्द पिता के,
हुए अनुगुंजित अधिभारित अनुशासित थे।
हुए अंकुशित बुद्धि के घोड़े डर बेदखली के,
पर मनोभाव तो अभी भी त्यों विलासित थे।
होते ही जायदाद नाम अपने पिता की,
हुआ बेटा फिर से आपे से ही बेकाबू था।
उद्भासित पिता के अनुभव को भुला कर,
किया दूर प्रयोग से विवेक का तराजू था।
कुछ यारों ने लुटा,कुछ विकारों ने लुटा,
शेष कुछ लूट गई बेवफा महबूबा थी।
पिता की कमाई तो जाती रही हाथ से,
खुद के लिए तो कमाई उसे अजूबा थी।
पिता की पीठ में बजे नगाड़े की धुन,
समझा,कितनी मीठी,कितनी खट्टी थी।
मालामाल था,कंगाल हो लिया था जब,
तब समझा, पिता की सीख ही सच्ची थी।
गर्म खून था ठंडने लगा जब उसका,
लगा तोलने हर सौदा विवेक तराजू से।
संभलती दुकान फिर से जिंदगानी की,
तब तक जा चुकी थी ताकत ही बाजू से।
पछतावा तो था पर किस काम का ?
चिड़िया ने चुग लिए खेत अब सारे थे।
स्मृति पटल में अनुगुंजित शब्द पिता के,
अब समझा कि उनमें कौन से इशारे थे?
