जंगल की बात
जंगल की बात
आंधी तूफानों के गहन थपेड़ों में, हमने झेली सदा से हर पीड़ा है।
हिले डुले और टूटे कभी बिखरे, उठाया जीव संरक्षण का बीड़ा है।
हम धरती के वंशज धरती से उपजे, कहां किसने हमको खुद से उपजाया है?
जीये सदा से अम्बर पिता की छत के नीचे, पालती पोसती सदा से हमें हमारी जाया है।
न जाने क्यों नर नृशंस ने संहारा फिर हमको? हमने आखिर उसका कब और क्या खाया है?
उल्टा उसने ही है हमको हमेशा लूटा खसोटा, फल ,छाया ,सांसें ली लकड़ी से घर बनाया है।
अंधा मानुष नासमझी में जाने अनजाने ही, क्यों मारता खुद के ही पांव में कुल्हाड़ी है?
अपने ही प्राणदाता को जो नर मारे काटे, वह मंद बुद्धि है, न के कोई बड़ा खिलाड़ी है।
