उचाट
उचाट
आज फिर मन कुछ उचाट है!
लहरें हैं नाव पर या लहरों पर नाव है,
मुझमें मेरा उसमें उसका क्यों दिख रहा अभाव है?
डूबती उबरती नाव का ना मांझी ना पतवार है,
प्रकृति के विपरीत नदी में आया आज ठहराव है।
यह कैसी विडंबना यह कैसा दबाव है?
आज फिर मन कुछ उचाट है।
ऊंट है पहाड़ पर या ऊंट पर पहाड़ है,
सच में थोड़ा झूठ या झूठ में सच का छलाव है।
ना कोई रास्ता ना कोई दिख रहा सवार है
प्रकृति के विपरीत आज रेगिस्तान में हरियाली की बहार है।
यह कैसी संवेदना यह कैसा प्रहार है?
आज फिर मन कुछ उचाट है!
थल में जल है या जल में थल है?
दया से प्रेम का या प्रेम से दया का हो रहा रिसाव है।
इस अंधेरी रात में ना चांदनी ना चिराग है,
प्रकृति के विपरीत आज दिन में हो गई रात है।
यह कैसी चेतना यह कैसा संसार है?
आज मन फिर कुछ उचाट है!