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Vibha Jha

Abstract Comedy

4.7  

Vibha Jha

Abstract Comedy

नहीं समझते!

नहीं समझते!

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सूरज की तपन को, अग्नि की जलन को

वायु की गति को, साधु की मति को

सब नहीं जानते, सब नहीं समझते।


गगन की ऊंचाई को, अपनी ही परछाई को

सागर की गहराई को, झरने की ऊंचाई को

सब नहीं जानते, सब नहीं समझते।


पृथ्वी की वेदना को, अंतस की चेतना को

जंगल की सघनता को, पानी की तरलता को

सब नहीं जानते, सब नहीं समझते।


पथिक के गंतव्य को, अजनबी के मंतव्य को

तपस्वी के वक्तव्य को, अपने कर्त्तव्य को

सब नहीं जानते, सब नहीं समझते।



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