"मनसी".. बिल्कुल मन के जैसी !!
"मनसी".. बिल्कुल मन के जैसी !!
नहीं हूं मैं तुम्हारी लेखन की तरह
और न ही सोचती हूं वैसा
जैसा कि
सोच जाते हो तुम
"लिखते" हुए !!
बहुत ही साधारण सी हूं मैं..
नहीं होते वाक्यांश मेरे
अमृता प्रीतम के जैसे ,
और न दर्द सरीखा
"नीर भरी दुख की बदली" के जैसा !!
तुम्हारा एक-एक हर्फ
सजा हुआ करीने से
सीधे.. दस्तक देता है मन पर ,
मेरी कविता साधारण सी
उलझी-सुलझी अपने में ही,
माना, करतीं हैं सवाल..
कभी रूठें..
कभी रोयें..कभी सुबकें..
कभी करें शिकायतें..
साधारण सी लड़की के जैसे !!
सुनो..
नहीं समझतीं वो जज़्बात किताबी-प्रेम के,
मनाओ..तो मानें भी..एक बच्ची के जैसे
बस, भावुक हैं जरा
क्योंकि, ये हैं "मनसी".. बिल्कुल मन के जैसी !!