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Ramashankar Roy

Romance Others

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Ramashankar Roy

Romance Others

प्रेम पत्र

प्रेम पत्र

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प्रिये

आज फिर

मैं पढ़ना चाह रहा था

एक सामाजिक निबंध

किताब खुली थी

आंखें भी खुली थी

कुछ पढ़ नहीं पाया

क्योंकि

शब्द तैरने लगे

देखते ही देखते एक आकृति में बदल गए

वह आकृति तुम्हारी थी

बड़ी प्यारी लगी

तुम्हारे होंठों पर उभरी

दंतुरित मुस्कान

तीव्र इच्छा हुई

शब्द बनकर

तुम्हारे होंठों से चिपक जाऊं

तत्क्षण

मिल का भोंपू बजा

सुनते ही

शब्द यथास्थान नजर आने लगे

लिखा था साफ - साफ


मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएं

रोटी कपड़ा मकान

हिंदुस्तान हो या पाकिस्तान

बूढ़ा हो या जवान

देखते ही देखते

तुम फिर उभर आयी

शब्दों के ऊपर

इस बार उभरा सबूत शरीर

नदारद थी

दंतुरित मुस्कान

भूख से बिलखती तुम

वस्त्र असमर्थ लज्जा ढँकने को

जर्जर झोंपड़ी रहने को


माथा ठनका

तुम्हारी आँखों में देखा

प्यार नहीं घृणा

दया नहीं वेदना

अतः प्रिये

अपने चेहरे से कह दो

शब्दों का साथ न  दे

तबतक जबतक

तैयार ना कर लूँ

ऐसा अर्थशास्त्र

जिसमें तृप्त हो सके

सौंदर्य बोध

सिर्फ तुम्हारा

शंकर केहरी



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