Ghazal No. 42 कभी छान के देखो अपनों को वफ़ा की छलनी
Ghazal No. 42 कभी छान के देखो अपनों को वफ़ा की छलनी
कितनी भी गहरी क्यों ना हों जड़ें दिल में याद-ए-शजर की
खोखला होके वक़्त के दीमक से बस उसका ख़ाका ही रह जाएगा
है अबस जोड़ना वरक़-दर-वरक़ किताब-ए-हयात में
इख़्तिताम में तो बस मौत का सफ़्हा ही रह जाएगा
कभी छान के देखो अपनों को वफ़ा की छलनी में
सब निकल जाएँगे बस तेरा साया ही रह जाएगा
देखना बंद कर खुद को दुनिया की नज़रों से
नहीं तो ता-उम्र खुद से खफ़ा ही रह जाएगा
मत उठा आँखों में ला-हासिल-ए-ख़्वाब की लहरों को
लौटेंगी ये जब तो आँखों में मायूसी का रेता ही रह जाएगा
खुशियों के दिनों से ही दिल न बहला ग़म की रातों से भी दिल लगा
दिन का हुजूम छँट गया तो फिर रात में तन्हा ही रह जाएगा
यूँ ही अगर करता रहा तू सच की वक़ालत इस फ़रेब-ए-शहर में
तो एक ना एक दिन बस तू ही खुद का हम-नवा रह जाएगा
बे-दाग कर लिया किसी ने दामन अपना गंगाजल से तो किसी ने आब-ए-ज़मज़म से
और तू यहाँ अपने ग़ुनाहों पर नदामत ही करता रह जाएगा
हैरत क्या कि बाद-ए-तर्क-ए-इश्क़ खाली हो गया ये दिल
क्या इल्म नहीं कि क़ायनात-ए-इख़्तिताम के बाद बस ख़ला रह जाएगा
रोज़-ओ-शब जो रहेगा मशग़ूल मसाइल-ए-अक्ल की बातों में
तो मुआ'मला-ए-दिल तो अन-कहा ही रह जाएगा
कार-ए-आशिक़ी को मश्ग़ला मत समझ 'प्रकाश' बन गया जो
तू कभी इश्क़-ए-दिल-लगी तो फिर कहीं का ना रह जाएगा।।