बिखरते रिश्ते
बिखरते रिश्ते
ये समाज
बदलते परिदृश्य का रूप,
सबके सामने हैं
बिखरते रिश्ते,
आज के परिदृश्य में
खोखले आदर्श,
उस
समाज के
जिसमें
प्राचीन समाज की
केवल
अब,
बची है
छाया,
वह भी
अब
छोटी होती जा रही है
दिन-प्रतिदिन
जैसे,
शीत-सूर्य का प्रकाश
जिसमें प्रकाश तो है
लेकिन
वह ताप नहीं।
उसी प्रकार
बदलते रिश्ते समाज में।
बाढ़ में
कच्ची दीवारों की तरह
प्रत्येक क्षण
ढह रहीं हैं।
वहाँ पर एक दिन
केवल
रह जायेगा
मिट्टी का टीला ।
यही दशा है
आज
समाज में रिश्तों की।
एक
बेबुनियाद ढांचा
नाम मात्र के रिश्ते,
समाज में
बिखरते रिश्ते।
अब न वह भाई
न बहन
न पिता
न माता
सब रिश्ते दिखावे हैं,
छल के पुतले हैं।
अब
न वह प्रेम है
न ममता है
न दुलार है
न राखी की लाज ,
केवल
छल और दिखावा
ये बदलते रिश्ते
समाज के
बिखरते रिश्ते समाज के।
ये रिश्ते
एक सूखा पेड़
जिसकी संस्कार रूपी
पत्तियाँ
सूख कर गिर गई हैं,
अब
उसकी टहनियाँ भी
धीरे-धीरे
टूटती जा रही हैं
एक दिन
वह सूखा पेड़ भी
क्षीण होकर
घुन खाकर
गिर जायेगा,
तब
उसका रह जायेगा केवल
नाम।
ये बदलते रिश्ते
बिखरते रिश्ते समाज केI
अभी ग्राम जन में
बाकी है कुछ सभ्यता
लेकिन शहरों में
व्यापता जा रहा है,
पश्चिमी सभ्यता का रंग
जिनके लिए
माँ-बाप
कूडे़ के ढेर से
ज्यादा नहीं
क्योंकि
माँ-बाप
उनके लिए हैं
बोझ,
जो वे लादे-लादे
श्रवण कुमार की तरह
तीर्थ यात्रा नहीं करायेगें।
बिखरते रिश्ते
बदलते रिश्ते समाज के।
इन
बिखरते रिश्तों के लिए
जिम्मेदार है,
आज की शिक्षा एवं सभ्यता।
प्राचीन
संस्कृति की जड़ें
धीरे-धीरे हिल रही हैं,
अब न वह समाज, न संस्कृति,
धीरे-धीरे रिश्तों का बंधन
बिखरता जा रहा है।
बदलते रिश्ते बिखरते रिश्ते
समाज के।