कालोनी के लोग
कालोनी के लोग
संवेदना को
चीरती आवाज
घिसटती हुई ठेलेनुमा
छोटे-छोटे पहिए की गाडी,
ठेलते हुए हाथ
बिना पैरों के भी,
पैरो को पीछे छोड़ दे।
एक नियम सा था
सप्ताह में एक दिन
कालोनी में
ठेलेनुमा गाडी को
हाथों से
ठेलते हुए आना
और कुछ मिल जाए
तब भी ठीक
ना मिले तब भी
सब को आशीर्वाद देते
उसी तरह वापस
घिसटते हुए चले जाना।
यह
दृश्य रोजमर्रा की जिंदगी में
शामिल हो गया था।
शुरू-शुरू में
उसे देखकर
लोगों को सहानुभूति होती थी।
ना चाहते हुए भी
कुछ ना कुछ दे ही देते थे
कभी
एक- दो रूपया
या शाम की रखी रोटी
जिसे गाय या कुत्ते को खिलाते।
धीरे -धीरे
वह भी देना बंद कर दिया।
वह
अपने को अब भी
उसी तरह
ठेलेनुमा गाडी पर घसीटते हुए आती।
मैं उसे बालकनी से
आते-जाते देखता रहता,
उसके पैर नहीं थे,
वह शरीर से अपंग थी
मेरे कोलोनी के सभ्य लोग
दिल से अपंग हो गये।
उसे फिर कभी नहीं देखा
उस कालोनी में।