ठिठुर गई ठंड
ठिठुर गई ठंड
कितनी सर्दी है आज,
बदन क्या रूह तक कांप रही है,
दो स्वेटर और एक जैकट लादे,
दस्ताने और मफलर बांधे बैठा हूँ मैं।
आस पास भी ऊनी कपड़ों की प्रदर्शनी सी है,
कोई लाल, कोई नीला, कोई नारंगी,
रंग बिरंगे ऊनी कपड़ों में घुसे हैं लोग,
कितनी सर्दी है आज।
प्लेटफार्म पर बैठे हैं सब,
अपनी अपनी रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में,
कोहरा तो कम है, पर हाड कांप रहा है,
इतनी गलन है आज।
हाथों के बीच दबाए बैठाहूँ गर्म चाय का कप,
और देख रहाहूँ वो रेडी वाले के तवे से निकलती भाप,
रेलगाड़ी का इंतज़ार करते देख रहाहूँ सब तरफ,
और कुछ ऐसा देख लिया सब गर्मी छूमंतर हो गई।
अगले प्लेटफार्म पर वो मजबूरी लपेटे एक भिकारन,
नंगा बदन और उसपर एक फटी हुई गंदी कमीज़,
कहीं से मिला हुआ रोटी का एक टुकड़ा खाती हुई,
और इतनी सर्दी को ठेंगा दिखाती हुई।
उसे देख धिक्कार दिया मैंने अपनी इंसानियत को,
और करता भी क्या, इंसान जो ठहरा,
रूह कांपती ठंडी में जीने का हौसला बांधे वो भिखारन,
देख उसे ठंड भी ठिठुर गई आज।