कितना शांत
कितना शांत
अंततः अब एहसास कर पा रहा हूं जो पूरे जीवन खोजता रहा,
वो मद्धिम बेहती नदी और चिड़ियों का चहचना,
हौले से ढलता सूरज और चढ़ती हुई शाम,
थमता हुआ कौतूहल और शांत होता लोगों का रुदन,
ठंडी पड़ती विलासिता और आकाश से छटता धुआं,
मोह माया के छूटते बंधन और एकदम हल्का होता मन,
मुझसे दूर जाती भीड़ और ठंडा पड़ती मेरी ज्वाला,
ये गीली रेत और इस रेत पर पड़ा मैं,
दायित्वों का सुलझता जाल और वो एक पगडंडी,
हल्के पड़ते कष्ट और वो अनंत को जाता रास्ता,
सोचता हूं कि जाना तो आगे उसी पगडंडी पर है,
पर थोड़ी देर और यहां रुक जाऊं और निहार लूं ये सब,
अब जो शाम ढलने को है बस साथ देंगे वो चांद और तारे,
पर अभी यात्रा अधूरी है और मुझे पड़ेगा जाना उस पार,
अरे पगडंडी पे खड़े मुझे बुलाने वाले थोड़ा ठहर लो तुम भी,
देखो कितना शांत हूं मैं और कितना शांत है ये शमशान।