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कवि काव्यांश " यथार्थ "

Abstract Drama Tragedy Classics Fantasy Inspirational Thriller Others

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कवि काव्यांश " यथार्थ "

Abstract Drama Tragedy Classics Fantasy Inspirational Thriller Others

एक गुमनाम जीवन।।

एक गुमनाम जीवन।।

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यह कहानी एक जीवन का ऐसा आईना है जिसमें समाज की सबसे अनदेखी परछाईं झलकती है—मजबूरी, अभाव, इंतजार और अंतहीन दर्द।
 इस पीड़ा को समर्पित एक गहरी, भावनात्मक और विस्तृत कविता को लिखने का प्रयास किया हैं, जो उस मजबूर इंसान के जीवन का सार हैं जो जीवन से हार गया, कब तक अभावों को सहता, कब तक भूख से लड़ता, कब तक मजबूरियों में दब के रहता, कब तक दर्द की पीड़ा को सहता, कब तक आखिर कब तक— इस अंतहीन दर्द को बड़े ही बारीकी से पिरोने की कोशिश की हैं मैंने-  
ताकि पाठक न सिर्फ इसे पढ़ें, बल्कि उस इंसान के जीवन को जीने का अनुभव करें जो अपने आप को हमेशा अभाव, दुख, दर्द, मजबूरियों, संघर्ष में घिरा हुआ पाता हैं, उसे लगता कि यह जीवन उसको अभिशाप स्वारूप प्राप्त हुआ है और मुझे इस अभिशाप तलें दब कर रहना हैं। यह जग स्वार्थी हैं सिर्फ अपने ही स्वार्थ में जीती हैं, यहां कोई किसी का नहीं होता हैं, ऐसे कितने ही जीवन अंधेरों में कहीं खो जाते हैं और किसी को यहां कानों कान खबर भी  नहीं हो पाता है  :


"सन्नाटे का गीत"


धूप की चादर ओढ़े,
काँपते साये में जन्मा था
वह बदनसीब,
माँ की गोद में, दूध की बूंदें नहीं था,
बस आँखों में एक सपना था।

छप्पर टपकता रहा हर बरसात में,
और दिल भी…
टपकता रहा उम्मीदों की हर रात में।
भूख उसकी संगिनी थी,
नींद एक पराई रेखा,
और जीवन?
मानो चल रहा हो कांटों पर नंगे पाँव —
हर दिन जैसे एक परीक्षा हो।

मुट्ठी में कुछ भी नहीं,
बस तंग हाथों की चंद लकीरें थीं,
जो जितनी गहरी थीं,
उतना ही गहरा था उसका दर्द।

रोटियाँ नहीं थीं किस्मत में,
फिर भी जो मिला, बांटकर खाया,
कभी ज़हर सा नमक चबाया,
तो कभी हवा से पेट भर आया।

बचपन छीन गया वक्त का पंजा,
कंधों पर लदे बोझ से वो
खिलौनों की उम्र में मज़दूर बन गया।
कभी बस्ता नहीं देखा,
पर जिम्मेदारियों की किताबों
के नीचे दब गया।

हर शाम वो
किसी एक आवाज़ की
ओर देखता था—
शायद कोई बुला ले उसे,
शायद कोई अपना ले उसे,
शायद कोई देख ले उसकी तड़प कों…

लेकिन नहीं,
वो बस इंतज़ार करता रहा। —
बरसों तलक,
धूल-धुआँ खाते हुए,
खून के आँसू पीते हुए।

उसने किसी से कुछ,
कभी माँगा नहीं,
बस एक सहारा,
एक अपनापन…
पर इंसानों की भीड़ में
उसे कोई इंसान 
मिला नहीं ।

फिर एक दिन,
सर्द की वो रात में 
जहां बैठा था,
वहीं बैठा रह गया,
न कोई आवाज़ थी,
न कोई साया,
बस धुंध में लिपटी कुछ यादें थीं,
जो उसकी सांसों में ही
सिमट कर रह गई।

चाय का प्याला सा
अब ठंडा पड़ गया,
जैसे उसकी हर उम्मीदें,
सर्द हवाओं में कहीं
ओझल हो गया।

उसकी खुली आँखों में
जैसे कई सवाल बाकी थे अभी,
क्या अब भी कोई
लौटकर आएगा कभी?
या ये इंतज़ार भी
सर्द हवाओं सा,
खामोश होकर गुजर जाएगा?

और सुबह तलक
उसकी आँखें
खुली की खुली रह गई…
और साँसें हमेशा की तरह
जैसे नदारद थी कहीं ।

किसी को कुछ खबर नहीं,
ना कोई आँसू छलके कहीं,
ना कुछ शोर हुआ,
ना उसे कभी, कहीं खोजा गया।

बस एक अधूरी कहानी
जो सन्नाटे में कहीं खो गई..
और ज़िंदगी
फिर किसी मजबूर को
अपने पन्नों पर उतारने
आगे निकल गई।





स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ"
         विरमगांव, गुजरात।
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