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कवि काव्यांश " यथार्थ "

Tragedy Classics Inspirational

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कवि काव्यांश " यथार्थ "

Tragedy Classics Inspirational

अच्छा चलतें हैं- अंधेरे से उजाले की ओर

अच्छा चलतें हैं- अंधेरे से उजाले की ओर

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चुभती रही जो
हर सांसों में
जो चुभन दबी थी
कहीं आहों में,
मन की व्याथा....
अब कहता भी किसे
न मिला कभी कोई
मुझे राहों में,
व्यथा जो मन में दबी थी
वो दब कर रह गई।
और मैं खुद से बेखबर
दुनिया से बेनज़र 
भटकता रहा यूहीं राहों में।।


न कोई सुनने वाला,
न कोई पूछने वाला,
चेहरे की मुस्कानों के पीछे
आंखों का समंदर छुपा रह गया।

रातें भी अब छलकते
आंसुओं से अकसर
सवाल पूछा करती हैं ,
वो कौन है जो
दर्द के सैलाबों में
इस कदर ज़िन्दगी को
डूबोंए जातें है,
और चाँद भी चुपचाप
दर्द को सहलाते
संगीत की धीमी लय में 
लोरी सुनाए जाते है।
तारे भी हमसफर
बनकर रात भर 
खमोशी की तान पर
मेरे ग़म को और भी 
सुरीला बनाए जाते है ।
यादों की परछाईंयों में
एक धुंधली सी तस्वीर 
यादों में गुनगुनाते हीं
अंखियों से
अश्रु छलकाए जाता हूं।
रात की गहरी
अंधियारे में ......
अकसर खुद को 
मैं खामोशी के साथ पाता हूं।


कभी सोचा था
दिल की मासूम ख्वाहिशें
रंग भर देंगी जिंदगी में,
पर वक़्त के बेरंग हाथों ने
सब रंग छीन लिए।

अब तो तन्हाई ही
मेरी हमसफ़र बन गई,
और आंसू भी
बिना शोर के छलकना सीख गई ।

मेरे भीतर का वो बचपन
जो हंसना जानता था कभी,
आज कहीं खो गया —
शायद उसी मोड़ पर
जहाँ किसी ने
भरोसे को दांव पर लगा
चूर चूर किया था।

बस,
अब और नहीं
और नहीं बस 
अब और नहीं,
कितने दुःख सह लिए
कितने ग़मों कों पी लिए,

अब इन बोझिल पलों को
राख की तरह हवा में बिखेर कर,
बीते हुए हर आँसू को
समंदर में डुबो कर।

तन्हाइयों के ठंडे कमरे छोड़कर
धूप की गर्म बाँहों में निकल पड़ूँगा,
खामोशी के सुनसान रास्तों से
फूलों और हँसी के मेले की ओर मुड़ जाऊँगा।

जहाँ उम्मीदें चाँदनी की तरह
हर अंधेरे को पिघला दें,
जहाँ चाहतें बारिश बनकर
सूखी रूह को भिगो दें।

जहाँ जीने का कारण
हर सुबह की मुस्कान में हो,
जहाँ अपनापन
हर चेहरे की चमक में हो।

अब मैं चल पड़ा हूँ
उस राह पर,
जहाँ सिर्फ खुशियाँ हों—
जहां ज़िन्दगी को
खुलकर जिया जाए,
जहां किसी के काम
मैं आ सकूं,
किसी के गमों अपना सकूं,
किसी के चेहरे की 
मुस्कान लौटा सकूं,
सुकुने-जिन्दगी हो
हर जगह,
जहां मैं हूं, बस मैं हूं
और मैं ही रहूं,
और मैं,
फिर से
खुद को जी सकूँ।

अच्छा चलते हैं....
अब जाने कब
मुलाकात होगी
दर्द अलविदा, 
ग़म, उदासी, तन्हाई
को भी अलविदा,
इतने समय मेरा 
साथ दिया,
मुझे अपना बना लिया,
शुक्रिया, बहुत बहुत शुक्रिया,

अच्छा चलतें हैं .......
कभी न खत्म होने वाले सफर में।।








स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना 
लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ  
 विरमगांव, गुजरात।


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