"एक वीर जननी की अमर गाथा"
"एक वीर जननी की अमर गाथा"
"वीर जननी की अमर गाथा"
(एक मां की आंखों से देखी हुई कथा)
१. मेरा घर, मेरा संसार
छोटा सा घर था हमारा,
मिट्टी की दीवारें, पर सपनों की नींव पत्थर की,
आँगन में तुलसी चौरा,
और दीवार पर टंगा तिरंगा।
सुबह मुर्गे की बांग पर
पति उठकर सेना की वर्दी सँवारते,
मैं रसोई में रोटियां सेंकती,
और बेटा आंगन में मिट्टी के खिलौनों से
सीमा पर लड़े जाने का खेल खेलता।
पति हंसकर कहते —
"देखो, ये मेरा छोटा सिपाही है,
कल को मेरी तरह देश की रक्षा करेगा।"
और मैं हंसते हुए कहती —
"बस मेरी गोद खाली मत करना।"
२. वो पहलज रण का संकेत
एक दिन गाँव की चौपाल में डाकिया दौड़ता आया,
चेहरे पर घबराहट, हाथ में मुहरबंद चिट्ठी,
उसने धीमे स्वर में कहा —
"सीमा पर तनाव बढ़ गया है,
सेना के जवान तुरंत बुलाए जा रहे।"
उस रात पति ने भोजन के साथ
मुझसे और बेटे से बातें कीं।
"सुनो, ये देश का बुलावा है,
अगर मैं लौटूं तो विजय के गीत सुनाना,
और अगर न लौटूं…
तो तिरंगे में लिपटा हुआ मुझ पर गर्व करना।"
मैं आँसू छुपाकर मुस्कुराने की कोशिश की,
और बेटे ने मासूमियत से पूछा —
"अम्मा, पिताजी तिरंगे में क्यों आएंगे?"
पति ने बेटे के सिर पर हाथ रखते हुए कहा —
"क्योंकि बेटा, तिरंगा केवल मरे हुए शरीर को नहीं ढकता,
वो उस शेर को ढकता है
जिसने मातृभूमि की रक्षा में
अपने प्राण दिए हों।"
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३. युद्ध का वह दिन
(यह भाग में मैं युद्ध का दृश्य पूरी शक्ति से प्रस्तुत कर रहा हूँ)
आकाश धुएं से ढका था,
तोपों की गड़गड़ाहट
मानो धरती की छाती चीर रही थी।
गोलियों की बौछार
हवा में जहर घोल रही थी।
मेरे पति, अपने दस साथियों के साथ
सीमा की चौकी पर डटे थे।
दुश्मन संख्या में अधिक,
पर हमारे सैनिकों की आत्मा अडिग।
"आगे बढ़ो, मत झुको!"
उनकी आवाज़ बिजली की तरह गूंजी।
एक-एक कर उन्होंने
दुश्मन की कई चौकियां ध्वस्त कीं,
पर तभी…
एक गोली उनकी छाती चीर गई।
आखिरी सांस लेते हुए उन्होंने रेडियो पर कहा —
"हमने सीमा संभाल ली है,
भारत माता की जय!"
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४. बेटा बड़ा हुआ
उस दिन मैंने सिर्फ पति नहीं खोया,
मैंने अपने जीवन का आधा हिस्सा खो दिया।
पर मेरे आँसू
मेरे बेटे की आंखों में आग बनकर उतरे।
वो दिन-रात अभ्यास करने लगा,
शारीरिक बल, निशानेबाजी,
देशभक्ति के गीतों के साथ
अपने दिल में पिता का सपना लिए।
जब उसने सेना में भर्ती की वर्दी पहनी,
तो मैं उसके माथे पर तिलक लगाकर बोली —
"जा बेटा, ये सिर्फ मेरी नहीं,
तेरी मातृभूमि की आज्ञा है।"
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५. दूसरी रणभूमि
इस बार मैं जानती थी —
जाने वाला लौट भी सकता है,
और शायद नहीं भी।
मेरा बेटा एक अभियान पर निकला,
जहाँ पहाड़ों में बर्फ थी,
पर हवा में बारूद की गंध।
दुश्मन ने घेराबंदी कर दी थी,
पर मेरा बेटा और उसकी टुकड़ी
सीना तानकर खड़े रहे।
"जय हिन्द!" की गर्जना के साथ
उसने अपने साथियों को आगे बढ़ाया,
और अंत में
एक ग्रेनेड फेंककर
दुश्मन का ठिकाना उड़ा दिया।
पर खुद…
उस विस्फोट में घायल होकर
तिरंगे में लिपट गया।
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६. समाज की श्रद्धांजलि
गाँव की गलियों में
ढोल-नगाड़ों की गूंज थी,
तिरंगे के सागर में
मेरा आँगन डूब गया।
लोग मुझे "वीर जननी" कहते रहे,
मेरे चरण छू रहे,
पर मेरे भीतर
खाली आँगन और सूनी
चौखट का दर्द उफ़ान
भरता रहा।
७. मेरा प्रण
आज भी तिरंगा मेरे आँगन में लहराता है,
हर सुबह उसकी छांव में दीप जलाती हूँ।
मैं जानती हूँ,
मेरे पति और बेटा
मिट्टी में मिलकर
इस देश के पहरेदार बन गए हैं।
और मैं…
हर जन्म यही मांगती हूं —
पति वीर हो, पुत्र वीर हो,
और मैं…
उनकी अमर गाथा कहलाने वाली
एक गर्वित भारतीय मां बनूं।
नमन करूं उन वीरों को
जिन्होंने मेरी जैसी
लाखों - करोंडों
मां ओं को गर्वित किया
मैं भी हर जन्म में
ऐसे वीरों को जन्मू
और अपने देश पर
नियौछावर कर दूं
और सदा के
गर्वित रहूं
वीरों की जननी बनकर।।
यही एक जननी
की है अंतिम इच्छा।
और सदा के लिए
अमर हो जाऊं।।
जय हिन्द।। जय वीर जवान।।
करते श्रंद्धाजलि अर्पित ऐसे वीर महान।।
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना
लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ
विरमगांव, गुजरात।
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