मन की ज्योत-इंसानियत।।
मन की ज्योत-इंसानियत।।
दुनिया में अगर सब सच्चे होते,
दिल से बड़े और मन से अच्छे होते,
न कोई छल-छलावा, न कोई गुरुर,
हर चेहरा चमकता जैसे निर्मल नूर।
न कोई जात-पात का भेदभाव,
न ऊँच-नीच का होता घाव,
न कोई दीवार, न कोई सरहद,
बस इंसानियत का होता साध।
हर मन में अगर दीप जलते,
सत्य, करुणा, प्रेम के पल पलते,
हर आंख में होती दया की नमी,
हर सांस में होती जीवन की कमी।
सोचो ज़रा, कैसा होता नज़ारा,
न तू-तू, मैं-मैं का किनारा,
न झगड़े, न कोई अपराध,
बस विश्वास, अपनापन और संवाद।
न कोई भूखा पेट सोता,
न कोई आंसुओं में खोता,
हर हाथ को मिलता सहारा,
हर जीवन होता प्यारा।
अगर हर दिल में दया खिलती,
तो नफरत की आग कभी न जलती,
हर मंदिर, मस्जिद, गिरजा और गुरुद्वारा,
गूंजते बस इंसानियत का नारा प्यारा।
न कोई धर्म के नाम पर लड़ता,
न कोई भाषा पर तनकर अड़ता,
न कोई सोचता "मैं बड़ा"
हर कोई कहता "हम सब एक हैं भला।"
सोचो ज़रा, कैसा होता जहां,
जहां हर कदम पर बस सुकून का गगन,
जहां इंसानियत की होती पूजा,
हर दिल होता प्रेम का दूजा।
अगर ऐसा हो तो धरती स्वर्ग बन जाए,
हर कोना जन्नत की महक फैलाए,
जहां हर मन पंछी सा उड़ सके,
और हर आत्मा शांति से जुड़ सके।
आओ मिलकर ये सपना संवारें,
इंसानियत के दीप हर दिल में उतारें,
भूलें भेदभाव की सारी रीतें,
अपनाएँ प्रेम, करुणा की प्रीतें।
क्योंकि दुनिया तभी खूबसूरत होगी,
जब हर आत्मा में इंसानियत जागेगी,
न द्वेष रहेगा, न कोई छलावा,
बस सच्चाई, अपनापन और भरोसा ही होगा।
जय हिन्द। जय इंसानियत।।
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना
लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ
विरमगांव, गुजरात।
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