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AJAY AMITABH SUMAN

Abstract Thriller

4  

AJAY AMITABH SUMAN

Abstract Thriller

दुर्योधन कब मिट पाया: भाग-13

दुर्योधन कब मिट पाया: भाग-13

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इस दीर्घ रचना के पिछले भाग अर्थात् बारहवें भाग में आपने देखा अश्वत्थामा ने दुर्योधन को पाँच कटे हुए नर कंकाल समर्पित करते हुए क्या कहा। आगे देखिए वो कैसे अपने पिता गुरु द्रोणाचार्य के अनुचित तरीके के किये गए वध के बारे में दुर्योधन, कृतवर्मा और कृपाचार्य को याद दिलाता है। फिर तर्क प्रस्तुत करता है कि उल्लू दिन में अपने शत्रु को हरा नहीं सकता इसीलिए वो रात में हीं घात लगाकर अपने शिकार पर प्रहार करता है। पांडव के पक्ष में अभी भी पाँचों पांडव , श्रीकृष्ण , शिखंडी , ध्रीष्टदयुम्न आदि और अनगिनत सैनिक मौजूद थे जिनसे दिन में लड़कर अश्वत्थामा जीत नहीं सकता था । इसीलिए उसने उल्लू से सबक सीखकर रात में हीं घात लगाकर पड़ाव पक्ष पे प्रहार कर नरसंहार रचाया। और देखिए अभिमन्यु के गलत तरीके से किये गए वध में जयद्रथ द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका और तदुपरांत केशव और अर्जुन द्वारा अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए रचे गए प्रपंच। प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का तेरहवां भाग। 


पिता मेरे गुरु द्रोणाचार्य थे चक्रव्यूह के अद्भुत ज्ञाता,

शास्त्र शस्त्र गूढ़ ज्ञान के ज्ञानी रणशिल्प के परिज्ञाता।

धर्मराज ना टिक पाते थे भीम नाकुलादि पांडव भ्राता ,

पार्थ कृष्ण को अभिज्ञान था वो कैसे संग्राम विज्ञाता।

  

इसीलिए तो यदुनंदन ने कुत्सित मनोव्यापार किया ,

संग युधिष्ठिर कपट रचा कर प्राणों पे अधिकार किया।

अस्वत्थामा मृत हुआ है गज या नर कर उच्चारण,

किस मुँह धर्म का दंभ भरें वो दे सत्य पर सम्भाषण।


धर्मराज का धर्म लुप्त जब गुरु ने असत्य स्वीकारा था,

और कहाँ था धर्म ज्ञान जब छल से शीश उतारा था । 

एक निहथ्थे गुरु द्रोण पर पापी करता था प्रहार ,

धृष्टद्युम्न के अप्कर्मों पर हुआ कौन सा धर्माचार ? 


अधर्म राह का करके पालन और असत्य का उच्चारण ,

धर्मराज से धर्म लुप्त था और कृष्ण से सत्य हरण। 

निज स्वार्थ सिद्धि हेतु पांडव से जो कुछ कर्म हुआ , 

हे कृपाचार्य गुरु द्रोणाचार्य को छलने में क्या धर्म हुआ ?


बगुलाभक्तों के चित में क्या छिपी हुई होती है आशा,

छलिया बुझे जाने माने किंचित छल प्रपंच की भाषा।

युद्ध जभी कोई होता है एक विजेता एक मरता है ,

विजय पक्ष की आंकी जाती समर कोई कैसे लड़ता है? 


हे कृपाचार्य हे कृतवर्मा ना सोचे कैसा काम हुआ ?

हे दुर्योधन ना अब देखो ना युद्धोचित अंजाम हुआ?

हे कृतवर्मा धर्म रक्षण की  बात हुई है आज वृथा ,

धर्म न्याय का क्षरण हुआ है रुदन करती आज पृथा।


गज कोई क्या मगरमच्छ से जल में लड़ सकता है क्या?

जो जल का है चपल खिलाड़ी उनपे अड़ सकता है क्या?

शत्रु प्रबल हो आगे से लड़ने में ना बुद्धि का काम , 

रात्रि प्रहर में ही उल्लू अरिदल का करते काम तमाम।


उल्लूक सा दौर्वृत्य रचाकर ना मन में शर्माता हूँ , 

कायराणा कृत्य हमारा पर मन ही मन मुस्काता हूँ । 

ये बात सही है छुप छुप के ही रातों को संहार किया ,

कोई योद्धा जगा नहीं था बच बच के प्रहार किया।


फ़िक्र नहीं है इस बात की ना योद्धा कहलाऊँगा,

दाग रहेगा गुरु पुत्र पे कायर सा फल पाऊँगा।

इस दुष्कृत्य को बाद हमारे समय भला कह पायेगा?

अश्वत्थामा के चरित्र को काल भला सह पायेगा?


जब भी कोई नर या नारी प्रतिशोध का करता निश्चय , 

बुद्धि लुप्त हो ही जाती है और ज्ञान का होता है क्षय। 

मुझको याद करेगा कोई कैसे  इस का ज्ञान नहीं ,

प्रतिशोध तो ले ही डाला बचा हुआ बस भान यहीं ।


गुरु द्रोण ने पांडव को हरने हेतु जब चक्र रचा,

चक्रव्यहू के पहले वृत्त में जयद्रथ ने कुचक्र रचा।

कुचक्र रचा था ऐसा कि पांडव पार ना पाते थे , 

गर ना होता जयद्रथ अभिमन्यु मार ना पाते थे।  


भीम युधिष्ठिर जयद्रथ पे उस दिन अड़ न पाते थे ,

पार्थ कहीं थे फंसे नहीं सहदेव नकुल लड़ पाते थे।  

अभिमन्यु तो चला गया फंसा हुआ उसके अन्दर ,

वध फला अभिमन्यु का बना जयद्रथ काल कंदर।  


अगर पुत्र के मरने पर अर्जुन को क्रोध हुआ अतिशय,

चित्त में अग्नि प्रतिघात की फलित हुई थी क्षोभ प्रलय।

अभिमन्यु का वध अगर ना युद्ध नियमानुसार हुआ ,

तो जयद्रध को हरने में वो कौन युद्ध का नियम फला?


जयद्रथ तो अभिमन्यु के वध में मात्र सहायक था ,

छल से वध रचने वालों में योद्धा था अधिनायक था। 

जयद्रथ को छल से मारा तथ्य समझ में आता हैं ,

पर पिता को वधने में क्या पुण्य समझ ना आता है।  


सुदूर किसी गिरी के अंतर और किसी तरुवर के नीचे,

तात जयद्रथ परम तपस्वी चित्त में परम ब्रह्म को सींचे।

मन में तन में ईश जगा के मुख में बस प्रभु की वाणी ,

कहीं तपस्या लीन मगन थे पर पार्थ वो अभिमानी।


कविता के अगले भाग अर्थात् चौदहवें भाग में देखिए कैसे अश्वत्थामा बताता है कि महाभारत होने का मूल कारण द्रौपदी, भीम, अर्जुन आदि के चित्त में छिपी अहंकार और प्रतिशोध की भावना ही थी। ये वही प्रतिशोध की भावना थी जिसके वशीभूत होकर उससे भी दुष्कर्म फलित हो गए।



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