शब्द हमारे दर्द या मरहम
शब्द हमारे दर्द या मरहम
जीवन में कुछ बातें छोटी ही सही,
पर घाव गहरा कर जाती हैं।
जितना भी प्रयत्न कर लें हम,
मुख से निकली तो वापस नहीं आती है।
क्यों शिकायत का बोझा इतना,
हम दिल में बसाए जाते हैं,
अपना माना जिनको दिल से,
क्यूँ उन पर विश्वास नहीं कर पाते हैं।
कई बातों का दर्द चेहरे पर आ नहीं पाता,
पर मन ही मन बेहद अखरती हैं।
याद रहे अहम के वसन में लिपटी काया,
रोज़ाना सौ बार मरती है।
कैसे स्नेह और खुशी को तुम,
इतनी बखूबी छुपाए जाते हो।
जो दिल के अंधेरे में दबाए बैठे,
क्यों खुलकर कह नहीं पाते हो।
क्यों शिकायत का बोझा इतना,
दिल में लिए हम फिरते हैं
क्यों औरों को दोषी ठहराकर ,
अपने हर झूठ से मुकरते हैं।
औरों से पाने की चाहत तो है
पर खुद की सच्चाई छुपाते हो,
उपहास करते हो औरों का,
क्या कभी खुद का सच सुन पाते हो?
जिंदगी के दिन हैं बस चार यहाँ,
सब यही तो कहते जाते हो,
फिर क्यों झूठी शान दिखाते ,
बात महलों की कर जाते हो।
अकड़ोगे तो उखड़ जाओगे एक दिन,
सभी का करो सम्मान यहाँ।
क्यों सदा मैं मैं की रट तुम लगाते हो?
क्यों हर वक्त अपना ही डंका बजाते हो?
अंदर कुछ, बाहर कुछ और नज़र आते हो,
क्या खूब मुखौटों के पीछे शक्ल छुपाते हो।
ज़रा शब्दों को भी प्रेम से बोलना सीखो।
क्यों कटु शब्दों से दिलों को ठेस पहुँचाते हो।