इंसानियत न मर पाए
इंसानियत न मर पाए
हम तो मंदिर मस्जिद बनाते ही रह गए,
दिल में कभी खुदा की मूरत न बसाई।
कुदरत की हर नेमत को बाँट दिया टुकड़ों में,
और पूछते हैं कि दिलों में नफरत कहाँ से आई।
सरहद पार तो हमने निभा ली अपनी दुश्मनी,
पर घर में बैठे शत्रु पर क्यूं न रोक लगाई।
अपनों पर वे वार करें बड़ी निर्ममता से,
इंसानियत की दुहाई दें पर जाने न पीड़ पराई।
क्यूं धर्म ,जात,रंग- भेद के बंधन हैं,
क्यूं सोच अब तक आज़ाद न हो पाई ?
रक्षक समझा जिनको, वही भक्षक बन बैठे हैं,
एहसास-ए-इंसानियत की समझ कभी न आई।
ये जो नफरत की बेड़ियां हैं, आओ ज़रा काट दें,
चलो प्यार के जज़्बे की नापें हम गहराई।
इंसान तो बहुत मिल जाते हैं इस शहर में,
उन फरिश्तों को ढूंढें जिन्होंने इंसानियत बनाई।
मंदिर, मस्जिद , गिरजे ,गुरुद्वारे मान जाओ सब एक हैं,
उस खुदा की नज़रों में कोई फ़र्क नहीं है भाई।
रंग कई बिखरे हुए हैं मेरे प्यारे हिंदुस्तान में,
बस कोशिश रहे अमन- प्रेम की धुन, देती रहे सुनाई।