कृपा भवन
कृपा भवन


कैकई की तरह नहीं था
वैभव और ऐश्वर्य उनका
जो होता उनके पास भी
अपना एक अदद
बेहद निजी 'कोपभवन !'
उनकी रामायणों में
लिखी हुई थी महाभारतें,
कोप उनके हिस्से सदा से ही
कैकई से कई गुना ज्यादा आया।
तो कहाँ भोगती ?
सो उन्होंने हार न मानी और जुगाड़ कर
अपने ही घर में बनाए अस्थाई कोप भवन।
कभी रसोई के कोने में प्याज काटते,
कभी बे जरूरत का ढेर सा साग छाजते,
बीनी बिनाई दाल बीनते,
बिन तेल मामजस्ते दनादन मिरच कूटते,
आधी रात अचानक उठ अलमार
ियों के कोने खुरचते,
कभी मुंह अँधेरे उठकर साफ चद्दरें ,
दरियां आँगन की पटिया पर रख थपकी के हत्थे पर जोर आजमाते,
और कभी साफ फर्श पर बैठ उसे
बारंबार झाड़ पोंछाते,
तो कभी हाथ में मंदिर की घंटी ले
भगवान के कान झन्नाते।
हर जगह बनाया उन्होंने
अपना अस्थाई कोपभवन
और जाने अंजाने ही संवार दिया
घर का हर कोना कोना!
वैसे जब वे सब पर प्रेम और ममता बरसाती रहीं
तब भी तो उन्हें सहेज संवार कर रखने को
कहाँ बने उनके लिए कभी कोई
अलग से 'कृपा भवन।'