।।आंकड़े।।
।।आंकड़े।।


मरते रहे मरीज़, अव्यवस्थाओं का शोर था,
ये देश रो रहा था,बस तूफानों का दौर था,
लाचार थे, कमज़ोर थे, मदद की दरकार थी,
जमीन पर तो नहीं दिखी, पर टीवी पे सरकार थी।।
करते रहे प्रचार वो, बस अपने ही काम के,
विज्ञापन भी छपते रहे, बस उनके ही नाम के,
खाल मोटी कर के अब,ये मेरे नेताजी सो गए,
हम जीते जाते लोग तो,बस आंकड़े ही हो गए।।
ऑक्सीजन की भी कमी नहीं, व्यवस्थाएं भी पूरी,
फिर जाने वो गरीब क्यों, न चल पाया कुछ दूरी,
तड़पता रहा वो एक एक सांस ,रोता अपने हाल को,
नेताजी ठोकते रहे छाती, बस अपने कमाल को।।
कर के दिन रात मेहनत ,जो कुछ जोड़ा था घर मकान,
हस्पताल को जाता रहा, सब जर, जमीन और दुकान,
वो गरीब जो पागल सा, कुछ हंसा फिर धम से रो दिया,
एक माँ ही बची थी पास ,आज उसको भी खो दिया ।।
मुझको नहीं पता कि इसमें ,किसका कितना कसूर है,
बस ये आंकड़े जो बोलते हो तुम, वो सच्चाई से दूर है,
कितनों ने अपने खोये और, कितनों ने घर द्वार त्यागे,
इस झूठे भरम से तब भी, माननीय नेताजी हैं न जागे।।