घुलते गलते हुये
घुलते गलते हुये
मुझे गलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा
ताप बढ़ाओ मैं गल जाऊंगा
जैसा जलता हुआ कपूर
उमस गलाती है
प्रेम जोड़ती है
द्वेष बहाती है
ईर्ष्या गरल घोलती
मैं कुछ नहीं हूं तो केवल पिघला हुआ
सागर जिसकी बूंदें
आजा बन चुकी है नदियां
कुछ सागर और कुछ झरने
मैं घुला हुआ झरता हूं
वहां उस टीले से बस्ती की
झरोखे पर वहां से बहाता हूं मैं
सड़क, गलियां ,चौबारे घुली दरख्त
गले हुये घर और पिघले गांवों कि मिट्टी
घुलते हुये भी मैं पिघला हूँ
पिघले हुए भी घुला
गांवों को पिघलाकर एक ठोस लोकतंत्र बनाने
के लिए मैं पिघल गया और
गला दिये कविताओं कई पंक्तियां
अब पिघल कर केवल उतरता हूं तो हृदय में
और लोगों को झकझोर कर
कविता पर गलने को मजबूर करता है
अंत में वे पिघल जाते हैं
और मैं भी...
