श्वेत-पुष्प
श्वेत-पुष्प


बारिश की बूँदों ने पहने, श्वेत-सुमन से चोले।
झर-झर झरते यों धरती पर,ज्यों कपास के गोले।
पर्वत घाटी दृश्य मनोरम,
सैलानी हर्षाए।
मौन मंजरी के मन में पर,
चिन्ता-घन थे छाए।
मोहन बोला ध्यान कहाँ है?
भट्टी नहीं जलेगी?
पर्यटकों को भला समय पर,
कैसे चाय मिलेगी?
कौन सोच में डूबी है री, काहे नाहिं बोले?
बारिश की बूँदों ने पहने, श्वेत-सुमन से चोले।।
बिजली गुल है पानी टूटा,
अधिक मशक्कत होगी।
ताकत से ज्यादा श्रम प्रतिदिन,
बन जाऊँगी रोगी।
बैरी सर्दी ऊपर से ये,
छत से रिसता पानी।
लगी फूँकने घने धुएँ को,
हो जग से अनजानी।।
सीली लकड़ी फटे कोट की,व्यथा नयन में डोले।।
<p>बारिश की बूँदों ने पहने,श्वेत-सुमन से चोले।।
छोटे से ढाबे को मोहन,
मन से लगा सजाने।
निवृत हो कर मधुर तान से,
मुरली लगा बजाने।
सुन कर मीठी तान सहज ही,
सैलानी आ जाते।
बना क्षेत्रीय भोज प्रेम से,
दोनों उन्हें खिलाते।।
देख कमाई दिन भर की मन,खुश हो ले हिचकोले।
बारिश की बूँदों ने पहने, श्वेत-सुमन से चोले।
ये सीजन अच्छा जाएगा,
मेरा मन कहता है।
ठीक करा दूँगा अबकी छत,
जो पानी बहता है।
फटे कोट में अगली सर्दी,
तेरी नही कटेगी।
तेरे माथे पर जो आई,
चिंता-रेखा छटेगी।
आशा को पूरण कर देना,किरपा करना भोले!
बारिश की बूँदों ने पहने, श्वेत-सुमन से चोले।