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Mani Aggarwal

Abstract

2.1  

Mani Aggarwal

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ऐसी भी क्या मजबूरी है?

ऐसी भी क्या मजबूरी है?

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बढ़ रहे असुर फिर पृथ्वी पर,

इनसे अब मुक्ति जरूरी है।

 अवतरो! जगत पालनहारे,

ऐसी भी क्या मजबूरी है ?


संरक्षक था जो उपवन का,

माली कलियों को नोंच रहा।

चहुँ ओर अधर्मी राज हुआ,

तू मौन खड़ा क्या सोच रहा ?


ये चीखें तुम्हें पुकार रहीं,

क्यों इनसे इतनी दूरी है ?

बढ़ रहे……..


नाजुक भोली, कोमल काया,

क्या उसका था अपराध कहो ?

मासूम सज़ा क्यों ये पाई ?

लुट गई यकीं की लाज प्रभो !


आग्नेय न सब धीरज खो दें

घट रही क्रोध से दूरी है।

बढ़ रहे…...


चीत्कार हृदय करता माँ का

अब मुनिया किसे पुकारेगी ?

भर अंक प्रेम से अब किस पर,

वो कजरा अपना वारेगी।

क्यों काल हुआ मोहित उस पर ?

तुमसे ये प्रश्न जरूरी है।

बढ़ रहे…….


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