कहो सहज क्या पुरुष कहना
कहो सहज क्या पुरुष कहना


जिम्मेदारी के बंधन में,
सपनो को रख कर सो जाना।
पीड़ा के लहराते सागर-
पर नयनों में बाँध बनाना।
उम्मीदों से जकड़ा जो वो,
कोमल मन पाषाण बनाना
कहो सहज क्या पुरुष कहना?
घेर रही कितनी आशाएँ,
नित फरमाइश के फेरे हैं।
कर्तव्यों का बोध कराते,
मेरे अपने बहुतेरे हैं।
इसकी-उसकी के मध्य आ,
अपनी चाहत का मर जाना
कहो सहज क्या पुरुष कहना?
color: transparent; color: rgb(0, 0, 0);"> इज्जत होती है पैसे से,
मोल नहीं है जज्बातों का।
सदा दोगुना रहा चुकाता,
कर्ज चढ़ा जितना नातों का।
पालक मुझे बनाया लेकिन-
निज हित जेबें खाली पाना।
कहो सहज क्या पुरुष कहना?
हँसने,रोने, कहने को क्या-
नजरों को भी तोला जाता।
बिना किसी गलती के अक्सर,
गुनहगार भी बोला जाता।
घुटन, उलझनों, बेचैनी को,
घूँट घूँट नित पीते जाना।
कहो सहज क्या पुरुष कहना?