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Mani Aggarwal

Abstract

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Mani Aggarwal

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मधुर कल्पना

मधुर कल्पना

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रति को लजाती कामिनी

अहो! कर रही श्रृंगार क्यों ?

 है सहज घायल पंचशर

 फिर और तीखी धार क्यों ?


अलकें लुभाएँ मेघ सी

दो नेत्र पारावार से

उस पर तनी धनु सम भँवे

शर छोड़ती अंगार से


ताजे गुलाबों से अधर

तिल गाल पर इतरा रहा

गर्दन सुराहीदार का

जादू हृदय भरमा रहा


नवनीत सी स्निग्धता से,

तन श्वेत खिल-खिल जा रहा

धर हाथ कटि पर जब चले

स्वर मौन को मिल जा रहा


बन कर तुम्हीं तो कल्पना,

मन को लुभाती आ रहीं

आधार देकर काव्य का

नित लेखनी पकड़ा रहीं।


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