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Rakesh Kumar

Drama

5.0  

Rakesh Kumar

Drama

दूर कहीं खूबसूरत शाम देखता हूँ

दूर कहीं खूबसूरत शाम देखता हूँ

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दूर कहीं एक खूबसूरत,

शाम देखता हूँ,

दोस्तों की दुआ और,

न जाने कितने सलाम देखता हूँ ।


वक़्त का पहर कमबख्त,

वक़्त को रास न हुआ शायद,

हाथ से फिसलता हुआ,

मंज़र तमाम देखता हूँ ।


दिल्लगी के सबब से बड़ा,

बेअदब हो गया हूँ मैं,

थोड़ा आज़ाद हुआ पर खुद को,

वक़्त का गुलाम देखता हूँ ।


खैर खुद को बदलने का,

तज़ुर्बा बहुत काम आया मुझको,

लफ़्ज़ों के समंदर से निकला तो,

बदला हुआ इंसान देखता हूँ ।


जमाने की गलतियाँ नहीं देखता,

ना खुद की बुराइयाँ खोजता हूँ अब,

नदी में खुद का चेहरा,

कभी एक टुकड़ा आसमान देखता हूँ ।


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