दूर कहीं खूबसूरत शाम देखता हूँ
दूर कहीं खूबसूरत शाम देखता हूँ
दूर कहीं एक खूबसूरत,
शाम देखता हूँ,
दोस्तों की दुआ और,
न जाने कितने सलाम देखता हूँ ।
वक़्त का पहर कमबख्त,
वक़्त को रास न हुआ शायद,
हाथ से फिसलता हुआ,
मंज़र तमाम देखता हूँ ।
दिल्लगी के सबब से बड़ा,
बेअदब हो गया हूँ मैं,
थोड़ा आज़ाद हुआ पर खुद को,
वक़्त का गुलाम देखता हूँ ।
खैर खुद को बदलने का,
तज़ुर्बा बहुत काम आया मुझको,
लफ़्ज़ों के समंदर से निकला तो,
बदला हुआ इंसान देखता हूँ ।
जमाने की गलतियाँ नहीं देखता,
ना खुद की बुराइयाँ खोजता हूँ अब,
नदी में खुद का चेहरा,
कभी एक टुकड़ा आसमान देखता हूँ ।