बदलता वक़्त
बदलता वक़्त
कभी मुद्दतों से जमा किया,
रेत के दानों-सा बिखर गया ।
अब ना वो वक़्त रहा,
ना मौसम रहा ना,
रातें रही ना सहर रहा ।
शरगोसियों में ढूँढता था,
ज़माल-ए-इश्क़ वो आशिक़ कभी,
बेखुदी में समझा तो,
बेपरवाह गुफ्तगू भी बे-असर रहा ।
एक दो नहीं, हजारों दास्ताँ हैं,
उस सफ़र के साथ बाबस्ता,
बेकशी में देखो ज़रा अब,
ना वो डगर रहा,
न सफ़र रहा ।
शिकवे शिकायतों में, ज़ाया किया मैंने,
सुनहरा वक़्त मेरे हिस्से का,
परखने चला था लोगों को,
मिला हर शख्स, ज़ुबान-ए-खंज़र रहा ।
वक़्त दर वक़्त, ये वक़्त गुज़रता रहा ,
तुम बदलते रहे थोड़ा,
मैं भी बदलता रहा ।
हम दोनों के इस बदल में देखोे,
क्या क्या बदल गया,
की ना तुम, तुम रहे,
ना मैं, मैं रहा ।।