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Rakesh Kumar

Drama

5.0  

Rakesh Kumar

Drama

बदलता वक़्त

बदलता वक़्त

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कभी मुद्दतों से जमा किया,

रेत के दानों-सा बिखर गया ।


अब ना वो वक़्त रहा,

ना मौसम रहा ना,

रातें रही ना सहर रहा ।


शरगोसियों में ढूँढता था,

ज़माल-ए-इश्क़ वो आशिक़ कभी,

बेखुदी में समझा तो,

बेपरवाह गुफ्तगू भी बे-असर रहा ।


एक दो नहीं, हजारों दास्ताँ हैं,

उस सफ़र के साथ बाबस्ता,

बेकशी में देखो ज़रा अब,

ना वो डगर रहा,

न सफ़र रहा ।


शिकवे शिकायतों में, ज़ाया किया मैंने,

सुनहरा वक़्त मेरे हिस्से का,

परखने चला था लोगों को,

मिला हर शख्स, ज़ुबान-ए-खंज़र रहा ।


वक़्त दर वक़्त, ये वक़्त गुज़रता रहा ,

तुम बदलते रहे थोड़ा,

मैं भी बदलता रहा ।


हम दोनों के इस बदल में देखोे,

क्या क्या बदल गया,

की ना तुम, तुम रहे,

ना मैं, मैं रहा ।।


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