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Pankaj Kumar

Drama

4  

Pankaj Kumar

Drama

पी के

पी के

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अनजाना सा, अलबेला सा

लगता था नादान

बिन कपड़े ही घूमे 

लाज शरम से अंजान


कौन था, कहां से था

ना कोई पहचान

ना कोई नाम 

ना था पता 

कैसे अपनी बचाए जान


क्या नई तकनीक थी उसकी

कैसा था वो ज्ञान

सीख गया सब 

हाथ पकड़कर बस

जैसे बरसों की हो पहचान


पर जान बचाते भी भागा फिरे कहीं

कहीं मुंह में चबाए पान 

था वो दूजी दुनिया का प्राणी

पर लगता था इंसान


घर भूला था ढूंढ रहा था

जैसे फंस गया ब

ीच मैदान

सब ने चाहा अपना फ़ायदा

इंसानियत का भी ना रहा कोई कायदा

चाहे हो जाए किसी का 

कितना भी नुकसान


ये भोला भी ना बच पाया

प्यार किया और उसे छुपाया

था वो सच्चा, अक्ल का कच्चा

सीख गया जो दुनिया ने सिखाया

जाते जाते बात बना कर

आंसुओं को पलकों में छुपाया

बह ही गए मन के भाव

प्रेम विरह उसने भी निभाया

आया था वो बेनामा 

पी के, पी के सब ने था बुलाया

ऐसा था वो अलबेला सा

लौट गया अपने घर को

दिल में प्यार छुपा कर

चला गया जहां से था आया...


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