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Pankaj Kumar

Abstract

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Pankaj Kumar

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घर से दूर

घर से दूर

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अपना शहर अनजाना हो गया 

चाव से बनाया था जो आशियाना 

जैसे की मुसाफिरखाना हो गया 

आते हैं कभी कभी

रुकते हैं कभी कभी 

परदेस में जब से आना जाना हो गया।

 

गलियां, सड़कें बदल गयी 

मोहल्ले, सब बाजार बदल गए 

अक्सर मिल जाते थे नुक्कड़ पर 

अपने वो सब यार भी बदल गए 

सब इधर उधर हो गए 

कुछ अपने में यूँ खो गए 

कुछ आज भी वही रहते हैं

घर से दूर जो गए 

बस दूर के ही हो गए

 

मैं भी आया हूँ काफी देर बाद 

बीते लम्हे आते हैं याद 

अरसा कितना बीत गया 

काफी कुछ बदल गया 

पर महक वैसी ही है 

चहक वैसी ही है 

शहर की रौनक तो 

पहले जैसी ही है।

 

बस जाना पहचाना ये चेहरा 

धीरे धीरे अनजाना हो गया 

घर अपना ही बेगाना हो गया 

परदेस में जब से आना जाना हो गया

परदेस में जब से आना जाना हो गया।


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