मेरे मन का शैतान
मेरे मन का शैतान
दिखता नहीं जो छिपा हुआ है
अंतर्मन में काफ़ी भीतर तक घुसा हुआ है
डरता है सबके सामने आने
लगता है चार दिवारी के अन्दर घुर्राने
जो दिन में छुपा हुआ है सबसे
रात में बाहर आ जाता है
करता मन मर्ज़ी है अपनी
ना ही वो शर्माता, ना ही घबराता है
सोचता हूं वो कोई और है या मैं हूं
जो दुनिया की भीड़ में खो जाता है
डरपोक है या मौका परस्त है
जो छुप छुप कर घात लगाता है
निकालना मुश्किल है उसको मन से
खेल मुझसे जो ऐसे खेल जाता है
कुछ बातें अच्छी लगती है उसकी
जब हकीकत से रूबरू करवाता है
पर रंग बदलते देर नहीं करता
पल में शैतानियां कर जाता है
आता है अंधेरे में, अकेलेपन में ही
उजाला देख कर वो घबराता है
कैसा शैतान है ये जो है मेरे मन में
कैसा शैतान है ये जो है जन जन में
कैसा शैतान है ये जो हर जीवन में
कैसा शैतान है ये जो है दर्पण में
पर दर्पण में तो मैं ही हूं
फिर वो शैतान तो मैं ही हूं
इस बात से अंजान मैं ही हूं
मेरे मन का शैतान मैं ही हूं
जो कुछ है सब मुझमें ही है
अच्छा बुरा सब मुझमें ही है
खुद बदलूंगा तो शैतान भी बदल जाएगा
अपने हिसाब से जीने का वो पल जरुर आएगा
आज ना सका तो क्या हुआ
वो पल हो सकता है कल आएगा
मेरी इस उलझन का हल आएगा
आज नहीं तो कल आएगा
आज नहीं तो कल आएगा।