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chandraprabha kumar

Drama

4  

chandraprabha kumar

Drama

आशा तृष्णा

आशा तृष्णा

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   कितनी भूली हुई थी मैं

तुमसे आस लगा बैठी,

जो तुम कुछ किसी को

दे ही नहीं सकते थे। 


कहीं वधू को किसी को

कहीं प्रशंसा मिली कभी ?

बेटे माता- पिता के हीरे हैं तो

क्या बेटियाँ हीरियॉं नहीं हैं?


आकर्षण का खेल है

क्या कहीं स्वच्छ प्रेम है,

प्रेम समझ नारी ही 

युगों से छली जाती है। 


यहॉं मतलब के साथी हैं

अपना ही हित साधते हैं,

मतलब पूरा हो जाते ही

पंछी भाँति उड़ जाते हैं। 


और नारी वहीं रुक जाती है

मन में सपनों का भार लिए,

वृथा सपनों में खो जाती है

 सब कुछ सच समझकर। 


आकर्षण केवल क्षणिक है

कैसे तुमने स्थायी समझा ,

सब कुछ बदल रहा है यहॉं

सब कुछ क्षीण हो रहा है ।


क्या कभी कामना पूरी होती

जिसे मिला उसे और चाहिए ,

जिसे नहीं मिला उसे चाहिए

क्या कभी तृष्णा पूरी होती। 


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