कसक
कसक
ये शहर और इसकी शाम सहर,
मृगतृष्णा सी आस और तपती दुपहर,।।
कभी राख,
कभी उसमें सुलगती आह,
नज़रों से बयां राज़,
खामोश हैं लब और चुप है हर काश,
गुमशुदगी में शामिल किया हर सवाल को,
अनजान ही कर दिया हर जवाब को,।।
सुनी अनसुनी सी कहानी,
कुछ आहत थी कलम और पन्ने पर चीख उठी कहानी,
दर्पण ना भाए,
ना रूप ना श्रृंगार तन को सुहाए,
गुज़रा वो अंतरा काहे ना सुध में आए,
इन अखियन को अब कोई रुत ना भाए,।।
भीड़ में खोजूँ मैं परछाई ये किसकी,
जिसने चित चुराया वो धुन थी किसकी,
ख़ोज ये कैसी,
ये अपरचित डगर है कैसी,
दूरी ये अंत है,
या ये अंत कोई आरंभ है,।।