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Ambika Nanda

Drama

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Ambika Nanda

Drama

त्यौहार

त्यौहार

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बड़े शहरों के त्योहारों में अब वो बात कहां,

इन गगन चुंबी इमारतों के शहरों के लोगों में वो जज्बात कहां।

महीनों पहले जो देते थे त्योहार दस्तक,

आज मनहूसियत सी शांति से बस निबट ही जाते हैं।


चूने के कनस्तर में भिगी कूंची,

हर दहलीज को नवीनता का भान कराती थी,

कहीं दूर से करवे,

कंदील-दिवले बेचती अम्मा की आवाज़ आती थी,

आज वो शोर कहां।


गली मोहल्ले में दुख सुख सांझा होते थे,

भेंट होती किसी बड़े से हाथ नमन में जुड़ जाते थे,

आज बगले झांका करते

हैं, हमारे बच्चे,

जाने वो असीस देने वाले शब्द गये कहां।


ग़लत को सही और सही को ग़लत

बेचने में लगी है भीड़।

हां भाई,

भरी जेब में है जो गर्मी,वो खाली में कहां।


मिथक है राम, इसलिए गया कचहरी में,

शाश्वत है सांता इसलिए बिकता हर मेले ठेले में।

ढूंढना है जिस आत्म को अपने भीतर ही,

ढूंढता उसे पढ़ा लिखा अज्ञानी यहां वहां।


अनंत है यह सृष्टि,तेरी मेरी मोहताज कहां,

एक बूंद, विशाल सागर में इस से ज्यादा,

ऐ बंदे तेरी हस्ती कहां।


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