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कुमार संदीप

Drama

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कुमार संदीप

Drama

रिश्ते

रिश्ते

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बदलते परिवेश में बदल रहे लोग,

हुआ क्या मनुज को न जाने क्या ?

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


कुछ रिश्ते टूट रहें,

अहम से कुछ रिश्ते टूट रहे वहम से,

कब होंगे सजग सभी,

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


मैं हूँ सही,

मैं नहीं गलत का है उलझन न जाने है कौन सही

और कौन गलत इसी कश्मकश में

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


पैसे की लोभ हैं ऐसी मन में

जिनके सामने अपनापन बस एक शब्द है,

इसी अहम में बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


रिश्ते की डोर तो अब है,

कमजोर हर कोई है खुद में मस्त और व्यस्त,

इसी कश्मकश में बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


फेसबुकिया मित्र है,

अब परिवार खुद के परिवार अब महज एक शब्द है,

इसी अदृश्य वास्तविक परिवार के कारण

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


भूल गए हम सभी संस्कार

और भूल गए पिता के आदर्शों को

इसी कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


स्मार्टफोन में मदमस्त हैं सभी

इसी में सब कुछ इसी में जीवन इसी स्मार्टफोन के कारण

बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


प्रतिकूल परिस्थितियों में रिश्तें ही आते हैं काम

इन बातों से हैं, नवयुवक अनजान,

इसी अज्ञानता के कारण बनने ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


अपनों में नहीं है, अपनापन अब हैं अर्थयुग,

कलयुग का दौर, इसी कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।

मुश्किल समय में अब रिश्तेदार नमस्ते कहते,

इसी नमस्कार से बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


अपना दुःख करोगे व्यक्त दुःख न होगा हल मिलेंगे

बदले में ताने और उपहास के दो शब्द

इसी कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


माँ कहती लाल रिश्ते बचाओं और अपनापन लाओ,

लाल खुद में मस्त और व्यस्त

इन्हीं कारणों से बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


कोई न समझता किसी के दर्द को

सब खुद की उपलब्धि और तरक्की में हैं व्यस्त

इसी व्यस्तता के कारण बनने से ज्यादा बिगड़ते रिश्ते।


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